धर्म बड़ा या
इंसानियत?
सूरज की
पहली किरणें छोटे से गाँव काशीपुर की गलियों को रोशन कर रही थीं। वहीं, गाँव के किनारे बने मंदिर में
पुजारी रामदास जी और मस्जिद में मौलवी साहब अपने-अपने पूजा-पाठ और इबादत में लगे
हुए थे। दोनों का आपस में कोई खास संबंध नहीं था, लेकिन एक-दूसरे के प्रति सम्मान ज़रूर था।
एक दिन, गाँव में अचानक खबर फैली कि पास के
जंगल में एक बाघ ने हमला कर दिया है और कुछ लोग घायल हो गए हैं। गाँव में खौफ का
माहौल था। उसी दिन शाम को एक औरत मंदिर के बाहर बेहोश पड़ी मिली। उसकी हालत बहुत
खराब थी और उसे तुरंत मदद की ज़रूरत थी।
पुजारी
रामदास जी ने उसे देखा और मदद के लिए आगे बढ़े। उन्होंने न सोचा कि वह किस धर्म की
है, न ये कि लोग क्या कहेंगे। बस उसे
अंदर ले जाकर पानी पिलाया और उसकी देखभाल की। थोड़ी देर में मौलवी साहब भी वहाँ
पहुँचे। उन्होंने भी उसकी हालत देखी और बिना कुछ सोचे-समझे उसकी मदद में लग गए।
दोनों ने
मिलकर औरत की देखभाल की और कुछ ही घंटों में वह औरत होश में आ गई। वह रोते हुए
बोली, "आप लोगों ने मेरी जान बचा ली। मैं
तो मुसलमान हूँ, फिर भी आपने मेरी मदद की।"
रामदास जी
ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटी, भूख लगने पर पेट को रोटी चाहिए
होती है, नाम नहीं। दर्द होने पर मरहम चाहिए
होता है, धर्म नहीं। इंसानियत से बड़ा कोई
धर्म नहीं।"
मौलवी साहब
ने भी सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, "सच्चा धर्म तो वही है जो दूसरों की मदद करना सिखाए।
हमारा कर्तव्य इंसानियत निभाना है, न कि लोगों को धर्म के नाम पर बाँटना।"
उस घटना के
बाद, काशीपुर के लोग धीरे-धीरे बदलने
लगे। रामदास जी और मौलवी साहब की मित्रता और उनकी सोच ने लोगों को यह समझाया कि
धर्म का असली मतलब सिर्फ पूजा-पाठ या इबादत करना नहीं, बल्कि इंसानियत की सेवा करना है।
कुछ सालों
बाद, काशीपुर एक मिसाल बन गया जहाँ
मंदिर और मस्जिद के बीच कोई दीवार नहीं थी। वहाँ बस इंसानियत की खुशबू फैल रही थी।
सीख: धर्म चाहे कोई भी हो, इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। जब हम
इसे समझ लेते हैं, तभी हम असली इंसान कहलाने के काबिल
बनते हैं।
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